Best urdu shayari :- इस पोस्ट में हमने बहुत सारे कवि के बेहतरीन poetry लाये है जो आपको बहुत पसंद आएगा इस पोस्ट में हमने राहत इंदौरी ,निदा फाजली ,मुनीर नियाज़ी जैसे शायरों का बेहतरीन से बेहतरीन shayari poetry लाये है।आपलोग इसे पढ़े और अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करे।
Urdu poetry in hindi love
1.मैं अकेला ही काफ़ी हूँ
इश्क़ में जीत के आने के लिये काफ़ी हूँ
मैं अकेला ही ज़माने के लिये काफ़ी हूँ
हर हक़ीक़त को मेरी ख़्वाब समझने वाले
मैं तेरी नींद उड़ाने के लिये काफ़ी हूँ
ये अलग बात के अब सुख चुका हूँ फिर भी
धूप की प्यास बुझाने के लिये काफ़ी हूँ
बस किसी तरह मेरी नींद का ये जाल कटे
जाग जाऊँ तो जगाने के लिये काफ़ी हूँ
जाने किस भूल भुलैय्या में हूँ खुद भी लेकिन
मैं तुझे राह पे लाने के लिये काफ़ी हूँ
डर यही है के मुझे नींद ना आ जाये कहीं
मैं तेरे ख़्वाब सजाने के लिये काफ़ी हूँ
ज़िंदगी ढूंडती फिरती है सहारा किसका
मैं तेरा बोझ उठाने के लिये काफ़ी हूँ
मेरे दामन में हैं सौ चाक मगर ए दुनिया
मैं तेरे ऐब छुपाने के लिये काफ़ी हूँ
एक अख़बार हूँ औक़ात ही क्या मेरी मगर,
शहर में आग लगाने के लिये काफ़ी हूँ
मेरे बच्चों मुझे दिल खोल के तुम ख़र्च करो,
मैं अकेला ही कमाने के लिये काफ़ी हूँ
राहत इंदौरी
2 .तुझे पाने की कोशिश में
कहाँ तक आँख रोएगी कहाँ तक किसका ग़म होगा
मेरे जैसा यहाँ कोई न कोई रोज़ कम होगा
तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूँ मैं
कि तू मिल भी अगर जाये तो अब मिलने का ग़म होगा
समन्दर की ग़लतफ़हमी से कोई पूछ तो लेता ,
ज़मीं का हौसला क्या ऐसे तूफ़ानों से कम होगा
हर एक की हम पसंद ठहरे हर एक का इंतेख़ाब निकले
हमीं को अच्छा बताया सब ने हमीं ज़ियादा ख़राब निकले
सवाल था इस तरफ़ अना का वक़ार का मस’अला उधर था
न दर पे ख़ाना ख़राब पहुंचे न घर से आली जनाब निकले
सुनी अंधेरों की सुगबुगाहट तो शाम यादों की कहकशां से
छुपे हुए माहताब निकले बुझे हुए आफ़ताब निकले
कई निगाहों ने दस्तकें दीं कई अदाओं ने गुदगुदाया
ये वाक़ए दिलनशीं बहुत थे मगर हक़ीक़त में ख़्वाब निकले
मैं मुतमइन हूं कि लब कुशाई से मैंने हद्द ए अदब न तोड़ी
वो इसपे ख़ुश है कि आज उसके सवाल सब लाजवाब निकले
~ अक़ील नोमानी
3. तुझे जब देखता हूँ तो
फ़क़ीराना तबीअत थी बहुत बेबाक लहजा था
कभी मुझ में भी हँसता-खेलता इक शख़्स रहता था
बगूले ही बगूले है मेरे वीरान आँखों में
कभी इन रहगुज़ारों में कोई दरिया भी बहता था
तुझे जब देखता हूँ तो ख़ुद अपनी याद आती है
मेरा अंदाज़ हँसने का कभी तेरे ही जैसा था
कभी पर्वाज़ पर मेरी हज़ारों दिल धड़कते थे
दुआ करता था कोई तो कोई ख़ुश-बाश कहता था
कभी ऐसे ही छाई थीं गुलाबी बदलियाँ मुझ पर
कभी फूलों की सोहबत से मिरा दामन भी महका था
मैं था जब कारवाँ के साथ तो गुलज़ार थी दुनिया
मगर तन्हा हुआ तो हर तरफ़ सहरा ही सहरा था
बस इतना याद है सोया था इक उम्मीद सी ले कर
लहू से भर गईं आँखें न जाने ख़्वाब कैसा था
~मनीष शुक्ला
4.उसे किसी से मोहब्बत थी
ज़न ए हसीन थी और फूल चुन के लाती थी
मैं शेर कहता था वो दास्ताँ सुनाती थी
उसे पता था मैं दुनिया नहीं मोहब्बत हूँ
वो मेरे सामने कुछ भी नहीं छुपाती थी
मुनाफ़िक़ों को मेरा नाम ज़हर लगता था
वो जान बूझ के ग़ुस्सा उन्हें दिलाती थी
अरब लहू था रगों में बदन सुनहरी था
वो मुस्कुराती नहीं थी दीये जलाती थी
उसे किसी से मोहब्बत थी और वो मैं नहीं था
ये बात मुझसे ज़ियादा उसे रुलाती थी
ये फूल देख रहे हो ये उसका लहजा था
ये झील देख रहे हो यहाँ वो आती थी
” से दूर रहो लोग उससे कहते थे
वो मेरा सच है बहुत चीखकर बताती थी
” ये लोग तुम्हें जानते नहीं हैं अभी
गले लगा के मेरा हौसला बढ़ाती थी
मैं उसके बाद कभी ठीक से नहीं जागा
वो मुझको ख़्वाब नहीं नींद से जगाती थी
मैं कुछ बता नहीं सकता वो मेरी क्या थी
कि उसको देख के बस अपनी याद आती थी
5. कभी मैं अपने हाथों की लकीरों से
उदासी आसमाँ है दिल मेरा कितना अकेला है
परिंदा शाम के पुल पर बहुत ख़ामोश बैठा है
मैं जब सो जाऊँ इन आँखों पे अपने होंट रख देना
यक़ीं आ जाएगा पलकों तले भी दिल धड़कता है
तुम्हारे शहर के सारे दिए तो सो गए कब के
हवा से पूछना दहलीज़ पे ये कौन जलता है
अगर फ़ुर्सत मिले पानी की तहरीरों को पढ़ लेना
हर इक दरिया हज़ारों साल का अफ़्साना लिखता है
कभी मैं अपने हाथों की लकीरों से नहीं उलझा
मुझे मालूम है क़िस्मत का लिक्खा भी बदलता है
~बशीर बद्र
6. हम ख़ुद से मिल जाते तो
दाग़ दुनिया ने दिए ज़ख़्म ज़माने से मिले
हम को तोहफ़े ये तुम्हें दोस्त बनाने से मिले
हम तरसते ही तरसते ही तरसते ही रहे
वो फ़लाने से फ़लाने से फ़लाने से मिले
ख़ुद से मिल जाते तो चाहत का भरम रह जाता
क्या मिले आप जो लोगों के मिलाने से मिले
माँ की आग़ोश में कल मौत की आग़ोश में आज
हम को दुनिया में ये दो वक़्त सुहाने से मिले
कभी लिखवाने गए ख़त कभी पढ़वाने गए
हम हसीनों से इसी हीले बहाने से मिले
इक नया ज़ख़्म मिला एक नई उम्र मिली
जब किसी शहर में कुछ यार पुराने से मिले
एक हम ही नहीं फिरते हैं लिए क़िस्सा-ए-ग़म
उन के ख़ामोश लबों पर भी फ़साने से मिले
कैसे मानें कि उन्हें भूल गया तू ऐ ‘कैफ़’
उन के ख़त आज हमें तेरे सिरहाने से मिले
कैफ़ भोपाली
7. तू क्या गया कि दिल मेरा ख़ामोश हो गया
तन्हाइयों में अश्क बहाने से क्या मिला
ख़ुद को दिया बना के जलाने से क्या मिला
मुझ से बिछड़ के रेत सा वो भी बिखर गया
उस जाने वाले शख़्स को जाने से क्या मिला
अब भी मेरे वजूद में हर साँस में वही
मैं सोचता हूँ उस को भुलाने से क्या मिला
तू क्या गया कि दिल मेरा ख़ामोश हो गया
इन धड़कनों के शोर मचाने से क्या मिला
अपने ही एक दर्द का चारा न कर सके
सारे जहाँ का दर्द उठाने से क्या मिला
जिस के लिए लिखा उसे वो तो न सुन सका
वो गीत महफ़िलों को सुनाने से क्या मिला
उन का हर एक हर्फ़ है दिल पर लिखा हुआ
उस दोस्त के ख़तों को जलाने से क्या मिला
सोचो ज़रा कि तुम ने ज़माने को क्या दिया
क्यूँ सोचते हो तुम को ज़माने से क्या मिला
~ अजय सहाब
Attitude deep urdu poetry
8. मैं अकेला ही चला था जानिब
जब हुआ इरफ़ाँ तो ग़म आराम-ए-जाँ बनता गया
सोज़-ए-जानाँ दिल में सोज़-ए-दीगराँ बनता गया
रफ़्ता रफ़्ता मुंक़लिब होती गई रस्म-ए-चमन
धीरे धीरे नग़्मा-ए-दिल भी फ़ुग़ाँ बनता गया
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया
मैं तो जब जानूँ कि भर दे साग़र-ए-हर-ख़ास-ओ-आम
यूँ तो जो आया वही पीर-ए-मुग़ाँ बनता गया
जिस तरफ़ भी चल पड़े हम आबला-पायान-ए-शौक़
ख़ार से गुल और गुल से गुलसिताँ बनता गया
शरह-ए-ग़म तो मुख़्तसर होती गई उस के हुज़ूर
लफ़्ज़ जो मुँह से न निकला दास्ताँ बनता गया
दहर में ‘मजरूह’ कोई जावेदाँ मज़मूँ कहाँ
मैं जिसे छूता गया वो जावेदाँ बनता गया
~ मजरूह सुल्तानपुरी
9. तेरा वा’दा तो नहीं हूँ
मेरी तक़दीर में जलना है तो जल जाऊँगा
तेरा वा’दा तो नहीं हूँ जो बदल जाऊँगा
सोज़ भर दो मेरे सपने में ग़म-ए-उल्फ़त का
मैं कोई मोम नहीं हूँ जो पिघल जाऊँगा
दर्द कहता है ये घबरा के शब-ए-फ़ुर्क़त में
आह बन कर पहलू से निकल जाऊँगा
मुझ को समझाओ न ‘साहिर’ मैं इक दिन ख़ुद ही
ठोकरें खा के मोहब्बत में सँभल जाऊँगा
10. मैं ख़ुश नहीं हूँ मगर देख कर लगेगा नहीं
बिछड़ गए तो ये दिल ‘उम्र भर लगेगा नहीं
लगेगा लगने लगा है मगर लगेगा नहीं
नहीं लगेगा उसे देख कर मगर ख़ुश है
मैं ख़ुश नहीं हूँ मगर देख कर लगेगा नहीं
हमारे दिल को अभी मुस्तक़िल पता न बना
हमें पता है तेरा दिल उधर लगेगा नहीं
जुनूँ का हज्म ज़ियादा तुम्हारा ज़र्फ़ है कम
ज़रा सा गमला है इस में शजर लगेगा नहीं
इक ऐसा ज़ख़्म-नुमा दिल क़रीब से गुज़रा
दिल उस को देख के चीख़ा ठहर लगेगा नहीं
जुनूँ से कुंद किया है सो उस के हुस्न का कील
मिरे सिवा किसी दीवार पर लगेगा नहीं
बहुत तवज्जोह त’अल्लुक़ बिगाड़ देती है
ज़ियादा डरने लगेंगे तो डर लगेगा नहीं
~उमैर नजमी
11. मेरे लिए जो ज़माने को छोड़ आया है
न जाने क्यूँ मुझे उस से ही ख़ौफ़ लगता है,
मेरे लिए जो ज़माने को छोड़ आया है…!!!
अँधेरी शब के हवालों में उस को रक्खा है,
जो सारे शहर की नींदें उड़ा के सोया है..!!!
रफ़ाक़तों के सफ़र में तो बे-यक़ीनी थी,
ये फ़ासला है जो रिश्ता बनाए रखता है…!!!
वो ख़्वाब थे जिन्हें हम मिल के देख सकते थे,
ये बार-ए-ज़ीस्त है तन्हा उठाना पड़ता है..!!!
हमें किताबों में क्या ढूँडने चले हो ‘वसीम’
जो हम को पढ़ नहीं पाए उन्हीं ने लिक्खा..!!!
~प्रो. वसीम वरेलवी साहब
12. तू ने मुझ को खो दिया
ग़म की बारिश ने भी तेरे नक़्श को धोया नहीं
तू ने मुझ को खो दिया मैं ने तुझे खोया नहीं
नींद का हल्का गुलाबी सा ख़ुमार आँखों में था
यूँ लगा जैसे वो शब को देर तक सोया नहीं
हर तरफ़ दीवार-ओ-दर और उन में आँखों के हुजूम
कह सके जो दिल की हालत वो लब-ए-गोया नहीं
जुर्म आदम ने किया और नस्ल-ए-आदम को सज़ा
काटता हूँ ज़िंदगी भर मैं ने जो बोया नहीं
जानता हूँ एक ऐसे शख़्स को मैं भी ‘मुनीर’
ग़म से पत्थर हो गया लेकिन कभी रोया नहीं
~ मुनीर नियाज़ी
13. उसने लिखा है मेरे घर नहीं आना
उस ने दूर रहने का मशवरा भी लिखा है
साथ ही मुहब्बत का वास्ता भी लिखा है
उस ने ये भी लिखा है मेरे घर नहीं आना
साफ़ साफ़ लफ़्ज़ों में रास्ता भी लिखा है
कुछ हुरूफ़ लिखे हैं ज़ब्त की नसीहत में
कुछ हुरूफ़ में उस ने हौसला भी लिखा है
शुक्रिया भी लिखा है दिल से याद करने का
दिल से दिल का है कितना फ़ासला भी लिखा है
क्या उसे लिखें ‘मोहसिन’ क्या उसे कहें ‘मोहसिन’
जिस ने कर के बे-जाँ, फिर जान-ए-जाँ भी लिखा है
~ मोहसिन नक़वी
Deep sufi urdu poetry
14. मैं ने पूछा था सबब पेड़ का
उस को खो देने का एहसास तो कम बाक़ी है
जो हुआ वो न हुआ होता ये ग़म बाक़ी है
अब न वो छत है न वो ज़ीना न अंगूर की बेल
सिर्फ़ इक उस को भुलाने की क़सम बाक़ी है
मैं ने पूछा था सबब पेड़ के गिर जाने का
उठ के माली ने कहा उस की क़लम बाक़ी है
जंग के फ़ैसले मैदाँ में कहाँ होते हैं
जब तलक हाफ़िज़े बाक़ी हैं अलम बाक़ी है
थक के गिरता है हिरन सिर्फ़ शिकारी के लिए
जिस्म घायल है मगर आँखों में रम बाक़ी है
~ निदा फ़ाज़ली
15. तन्हा न कट सकेंगे जवानी
मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत कभी कभी
होती है दिलबरों की इनायत कभी कभी
शर्मा के मुँह न फेर नज़र के सवाल पर
लाती है ऐसे मोड़ पे क़िस्मत कभी कभी
खुलते नहीं हैं रोज़ दरीचे बहार के
आती है जान-ए-मन ये क़यामत कभी कभी
तन्हा न कट सकेंगे जवानी के रास्ते
पेश आएगी किसी की ज़रूरत कभी कभी
फिर खो न जाएँ हम कहीं दुनिया की भीड़ में
मिलती है पास आने की मोहलत कभी कभी
~साहिर लुधियानवी
16. तेरी हाथ से मेरे होंट तक
कहीं चाँद राहों में खो गया कहीं चाँदनी भी भटक गई
मैं चराग़ वो भी बुझा हुआ मेरी रात कैसे चमक गई
मेरी दास्ताँ का उरूज था तेरी नर्म पलकों की छाँव में
मेरी साथ था तुझे जागना तेरी आँख कैसे झपक गई
भला हम मिले भी तो क्या मिले वही दूरियाँ वही फ़ासले
न कभी हमारे क़दम बढ़े न कभी तुम्हारी झिजक गई
तेरी हाथ से मेरे होंट तक वही इंतिज़ार की प्यास है
मेरी नाम की जो शराब थी कहीं रास्ते में छलक गई
तुझे भूल जाने की कोशिशें कभी कामयाब न हो सकीं
तेरी याद शाख़-ए-गुलाब है जो हवा चली तो लचक गई
~ बशीर बद्र
17. इक ज़ख़्म मुझ को चाहिए
अ’र्ज़-ए-अलम ब-तर्ज़-ए-तमाशा भी चाहिए
दुनिया को हाल ही नहीं हुलिया भी चाहिए
ऐ दिल किसी भी तरह मुझे दस्तियाब कर
जितना भी चाहिए उसे जैसा भी चाहिए
दुख ऐसा चाहिए कि मुसलसल रहे मुझे
और उस के साथ साथ अनोखा भी चाहिए
इक ज़ख़्म मुझ को चाहिए मेरे मिज़ाज का
या’नी हरा भी चाहिए गहरा भी चाहिए
इक ऐसा वस्फ़ चाहिए जो सिर्फ़ मुझ में हो
और उस में फिर मुझे यद-ए-तूला भी चाहिए
रब्ब-ए-सुख़न मुझे तिरी यकताई की क़सम
अब कोई सुन के बोलने वाला भी चाहिए
क्या है जो हो गया हूँ मैं थोड़ा बहुत ख़राब
थोड़ा बहुत ख़राब तो होना भी चाहिए
हँसने को सिर्फ़ होंट ही काफ़ी नहीं रहे
‘जव्वाद-शैख़’ अब तो कलेजा भी चाहिए
~जव्वाद शेख़
18. एक वीराना
सख़्त राहों में भी आसान सफ़र लगता है
ये मेरी मां की दुआओं का असर लगता है
मैंने जिस वक़्त तेरे दर पे किया है सजदा
आसमानों से भी ऊंचा मेरा सर लगता है
एक वीराना जहां उम्र गुज़ारी मैंने
तेरी तस्वीर लगा दी है तो घर लगता है
~ राहत इंदौरी
Romantic shayari urdu in hindi
19. मैं न ज़िंदा हूँ कि
लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं
रूह भी होती है उस में ये कहाँ सोचते हैं
रूह क्या होती है इस से उन्हें मतलब ही नहीं
वो तो बस तन के तक़ाज़ों का कहा मानते हैं
रूह मर जाती है तो जिस्म है चलती हुई लाश
इस हक़ीक़त को समझते हैं न पहचानते हैं
कितनी सदियों से ये वहशत का चलन जारी है
कितनी सदियों से है क़ाएम ये गुनाहों का रिवाज
लोग औरत की हर इक चीख़ को नग़्मा समझे
वो क़बीलों का ज़माना हो कि शहरों का रिवाज
जब्र से नस्ल बढ़े ज़ुल्म से तन मेल करें
ये अमल हम में है बे-इल्म परिंदों में नहीं
हम जो इंसानों की तहज़ीब लिए फिरते हैं
हम सा वहशी कोई जंगल के दरिंदों में नहीं
इक बुझी रूह लुटे जिस्म के ढाँचे में लिए
सोचती हूँ मैं कहाँ जा के मुक़द्दर फोड़ूँ
मैं न ज़िंदा हूँ कि मरने का सहारा ढूँडूँ
और न मुर्दा हूँ कि जीने के ग़मों से छूटूँ
कौन बतलाएगा मुझ को किसे जा कर पूछूँ
ज़िंदगी क़हर के साँचों में ढलेगी कब तक
कब तलक आँख न खोलेगा ज़माने का ज़मीर
ज़ुल्म और जब्र की ये रीत चलेगी कब तक
~साहिर लुधियानवी
20. अपना लड़ना भी मोहब्बत है
तेरा चुप रहना मेरे ज़ेहन में क्या बैठ गया
इतनी आवाज़ें तुझे दीं कि गला बैठ गया
यूँ नहीं है कि फ़क़त मैं ही उसे चाहता हूँ
जो भी उस पेड़ की छाँव में गया बैठ गया
इतना मीठा था वो ग़ुस्से भरा लहजा मत पूछ
उस ने जिस जिस को भी जाने का कहा बैठ गया
अपना लड़ना भी मोहब्बत है तुम्हें इल्म नहीं
चीख़ती तुम रही और मेरा गला बैठ गया
उस की मर्ज़ी वो जिसे पास बिठा ले अपने
इस पे क्या लड़ना फुलाँ मेरी जगह बैठ गया
बात दरियाओं की सूरज की न तेरी है यहाँ
दो क़दम जो भी मेरे साथ चला बैठ गया
बज़्म-ए-जानाँ में नशिस्तें नहीं होतीं मख़्सूस
जो भी इक बार जहाँ बैठ गया बैठ गया
~तहज़ीब हाफ़ी
21. हम भी अंजाम की परवाह नहीं करते
हमने इक शाम चराग़ों से सजा रक्खी है
शर्त लोगों ने हवाओं से लगा रक्खी है
हम भी अंजाम की परवाह नहीं करते यारों
जान हमने भी हथेली पे सजा रक्खी है
शायद आ जाए कोई हमसे ज़ियादा प्यासा
बस यही सोच के थोड़ी सी बचा रक्खी है
तुम हमें क़त्ल तो करने नहीं आए लेकिन
आस्तीनों में ये क्या चीज़ छुपा रक्खी है
~वाली आसी
22. एक जुदाई का वो लम्हा
शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं
इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं
फिर वही तल्ख़ी-ए-हालात मुक़द्दर ठहरी
नश्शे कैसे भी हों कुछ दिन में उतर जाते हैं
इक जुदाई का वो लम्हा कि जो मरता ही नहीं
लोग कहते थे कि सब वक़्त गुज़र जाते हैं
घर की गिरती हुई दीवारें ही मुझ से अच्छी
रास्ता चलते हुए लोग ठहर जाते हैं
हम तो बे-नाम इरादों के मुसाफ़िर हैं ‘वसीम’
कुछ पता हो तो बताएँ कि किधर जाते हैं
~वसीम बरेलवी
23. मैं ऐसा ख़ूबसूरत रंग हूँ
बदन कजला गया तो दिल की ताबानी से निकलूँगा
मैं सूरज बन के इक दिन अपनी पेशानी से निकलूँगा
नज़र आ जाऊँगा मैं आँसुओं में जब भी रोओगे
मुझे मिट्टी किया तुम ने तो मैं पानी से निकलूँगा
तुम आँखों से मुझे जाँ के सफ़र की मत इजाज़त दो
अगर उतरा लहू में फिर न आसानी से निकलूँगा
मैं ऐसा ख़ूबसूरत रंग हूँ दीवार का अपनी
अगर निकला तो घर वालों की नादानी से निकलूँगा
ज़मीर-ए-वक़्त में पैवस्त हूँ मैं फाँस की सूरत
ज़माना क्या समझता है कि आसानी से निकलूँगा
यही इक शय है जो तन्हा कभी होने नहीं देती
‘ज़फ़र’ मर जाऊँगा जिस दिन परेशानी से निकलूँगा
~ज़फ़र गोरखपुरी
Deep shayari on life urdu
24 . आग तेरी है न मेरी,
उस पे पत्थर खाके क्या बीती ज़फ़र देखेगा कौन
फल तो सब ले जाएँगे ज़ख़्मे-शजर देखेगा कौन
आग तेरी है न मेरी, आग को मत दे हवा
राख मेरा घर हुआ तो तेरा घर देखेगा कौन
अपने बुत अपनी ही झोली में छुपाकर लौट जा
लोग अन्धे हैं यहाँ तेरा हुनर देखेगा कौन
अपनी-अपनी नहर के अतराफ़ बैठे हैं सभी
प्यास की सूली पे हम प्यासों के सर देखेगा कौन
घर में पहुँचूँगा तो सब गठरी टटोलेंगे मेरी
आँख में चुभती हुई गर्दे-सफ़र देखेगा कौन
~ज़फ़र गोरखपुरी
25. दीवारें छोटी होती थीं
दीवारें छोटी होती थीं लेकिन पर्दा होता था
ताले की ईजाद से पहले सिर्फ़ भरोसा होता था
कभी कभी आती थी पहले वस्ल की लज़्ज़त अंदर तक
बारिश तिरछी पड़ती थी तो कमरा गीला होता था
शुक्र करो तुम इस बस्ती में भी स्कूल खुला वर्ना
मर जाने के बा’द किसी का सपना पूरा होता था
जब तक माथा चूम के रुख़्सत करने वाली ज़िंदा थी
दरवाज़े के बाहर तक भी मुँह में लुक़्मा होता था
भले ज़माने थे जब शेर सुहूलत से हो जाते थे
नए सुख़न के नाम पे ‘अज़हर’ ‘मीर’ का चर्बा होता था
~अज़हर फ़राग़
26 . मैं ज़िंदगी की दुआ माँगने लगा हूँ
मेरे ख़ुदा मुझे इतना तो मो’तबर कर दे
मैं जिस मकान में रहता हूँ उस को घर कर दे
ये रौशनी के तआ’क़ुब में भागता हुआ दिन
जो थक गया है तो अब इस को मुख़्तसर कर दे
मैं ज़िंदगी की दुआ माँगने लगा हूँ बहुत
जो हो सके तो दुआओं को बे-असर कर दे
सितारा-ए-सहरी डूबने को आया है
ज़रा कोई मिरे सूरज को बा-ख़बर कर दे
क़बीला-वार कमानें कड़कने वाली हैं
मिरे लहू की गवाही मुझे निडर कर दे
मैं अपने ख़्वाब से कट कर जियूँ तो मेरा ख़ुदा
उजाड़ दे मेरी मिट्टी को दर-ब-दर कर दे
मेरे ज़मीन मेरा आख़िरी हवाला है
सो मैं रहूँ न रहूँ इस को बारवर कर दे
27 . तमाम उम्र तेरा इंतिज़ार
तमाम उम्र तेरा इंतिज़ार हम ने किया
इस इंतिज़ार में किस किस से प्यार हम ने किया
तलाश-ए-दोस्त को इक उम्र चाहिए ऐ दोस्त
कि एक उम्र तिरा इंतिज़ार हम ने किया
तेरे ख़याल में दिल शादमाँ रहा बरसों
तेरे हुज़ूर उसे सोगवार हम ने किया
ये तिश्नगी है के उन से क़रीब रह कर भी
‘हफ़ीज़’ याद उन्हें बार बार हम ने किया
~हफ़ीज़ होशियारपुरी
28. तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है
कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो
बहुत कड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो
तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है
ये जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो
नशे में चूर हूँ मैं भी तुम्हें भी होश नहीं
बड़ा मज़ा हो अगर थोड़ी दूर साथ चलो
ये एक शब की मुलाक़ात भी ग़नीमत है
किसे है कल की ख़बर थोड़ी दूर साथ चलो
अभी तो जाग रहे हैं चराग़ राहों के
अभी है दूर सहर थोड़ी दूर साथ चलो
तवाफ़-ए-मंज़िल-ए-जानाँ हमें भी करना है
‘फ़राज़’ तुम भी अगर थोड़ी दूर साथ चलो
~अहमद फ़राज़
urdu shayari on life by ghalib
29. ये जो लड़की नई आई है
अपने बिस्तर पे बहुत देर से मैं नीम-दराज़
सोचती थी कि वो इस वक़्त कहाँ पर होगा
मैं यहाँ हूँ मगर उस कूचा-ए-रंग-ओ-बू में
रोज़ की तरह से वो आज भी आया होगा
और जब उस ने वहाँ मुझ को न पाया होगा!?
आप को इल्म है वो आज नहीं आई हैं?
मेरी हर दोस्त से उस ने यही पूछा होगा
क्यूँ नहीं आई वो क्या बात हुई है आख़िर
ख़ुद से इस बात पे सौ बार वो उलझा होगा
कल वो आएगी तो मैं उस से नहीं बोलूँगा
आप ही आप कई बार वो रूठा होगा
वो नहीं है तो बुलंदी का सफ़र कितना कठिन
सीढ़ियाँ चढ़ते हुए उस ने ये सोचा होगा
राहदारी में हरे लॉन में फूलों के क़रीब
उस ने हर सम्त मुझे आन के ढूँडा होगा
नाम भूले से जो मेरा कहीं आया होगा
ग़ैर-महसूस तरीक़े से वो चौंका होगा
एक जुमले को कई बार सुनाया होगा
बात करते हुए सौ बार वो भूला होगा
ये जो लड़की नई आई है कहीं वो तो नहीं
उस ने हर चेहरा यही सोच के देखा होगा
जान-ए-महफ़िल है मगर आज फ़क़त मेरे बग़ैर
हाए किस दर्जा वही बज़्म में तन्हा होगा
कभी सन्नाटों से वहशत जो हुई होगी उसे
उस ने बे-साख़्ता फिर मुझ को पुकारा होगा
चलते चलते कोई मानूस सी आहट पा कर
दोस्तों को भी किस उज़्र से रोका होगा
याद कर के मुझे नम हो गई होंगी पलकें
”आँख में पड़ गया कुछ” कह के ये टाला होगा
और घबरा के किताबों में जो ली होगी पनाह
हर सतर में मिरा चेहरा उभर आया होगा
जब मिली होगी उसे मेरी अलालत की ख़बर
उस ने आहिस्ता से दीवार को थामा होगा
सोच कर ये कि बहल जाए परेशानी-ए-दिल
यूँही बे-वज्ह किसी शख़्स को रोका होगा!
इत्तिफ़ाक़न मुझे उस शाम मिरी दोस्त मिली
मैं ने पूछा कि सुनो आए थे वो? कैसे थे?
मुझ को पूछा था मुझे ढूँडा था चारों जानिब?
उस ने इक लम्हे को देखा मुझे और फिर हँस दी
इस हँसी में तो वो तल्ख़ी थी कि इस से आगे
क्या कहा उस ने मुझे याद नहीं है लेकिन
इतना मालूम है ख़्वाबों का भरम टूट गया!
~ परवीन शाकिर
30. मेरी महबूब कहीं और मिला कर
ताज तेरे लिए इक मज़हर-ए-उल्फ़त ही सही
तुझ को इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से
बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मअ’नी
सब्त जिस राह में हों सतवत-ए-शाही के निशाँ
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मअ’नी
मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तश्हीर-ए-वफ़ा
तू ने सतवत के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा-शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली
अपने तारीक मकानों को तो देखा होता
अन-गिनत लोगों ने दुनिया में मोहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उन के
लेकिन उन के लिए तश्हीर का सामान नहीं
क्यूँकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़्लिस थे
ये इमारात ओ मक़ाबिर ये फ़सीलें ये हिसार
मुतलक़-उल-हुक्म शहंशाहों की अज़्मत के सुतूँ
सीना-ए-दहर के नासूर हैं कोहना नासूर
जज़्ब है उन में तिरे और मिरे अज्दाद का ख़ूँ
मेरी महबूब उन्हें भी तो मोहब्बत होगी
जिन की सन्नाई ने बख़्शी है उसे शक्ल-ए-जमील
उन के प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नुमूद
आज तक उन पे जलाई न किसी ने क़िंदील
ये चमन-ज़ार ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक़्क़श दर ओ दीवार ये मेहराब ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से
~साहिर लुधियानवी
31. ये हसीं रात ये महकी हुई
इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महल
सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है
इस के साए में सदा प्यार के चर्चे होंगे
ख़त्म जो हो न सकेगी वो कहानी दी है
इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महल
ताज वो शम्अ है उल्फ़त के सनम-ख़ाने की
जिस के परवानों में मुफ़्लिस भी हैं ज़रदार भी हैं
संग-ए-मरमर में समाए हुए ख़्वाबों की क़सम
मरहले प्यार के आसाँ भी हैं दुश्वार भी हैं
दिल को इक जोश इरादों को जवानी दी है
इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महल
ताज इक ज़िंदा तसव्वुर है किसी शाएर का
उस का अफ़्साना हक़ीक़त के सिवा कुछ भी नहीं
इस के आग़ोश में आ कर ये गुमाँ होता है
ज़िंदगी जैसे मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं
ताज ने प्यार की मौजों को रवानी दी है
इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महल
ये हसीं रात ये महकी हुई पुर-नूर फ़ज़ा
हो इजाज़त तो ये दिल इश्क़ का इज़हार करे
इश्क़ इंसान को इंसान बना देता है
किस की हिम्मत है मोहब्बत से जो इंकार करे
आज तक़दीर ने ये रात सुहानी दी है
इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज महल
सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है
इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महल…..
~शकील बदायूंनी
32. लड़कियाँ इश्क़ में
थोड़ा लिक्खा और ज़ियादा छोड़ दिया
आने वालों के लिए रस्ता छोड़ दिया
तुम क्या जानो उस दरिया पर क्या गुज़री
तुमने तो बस पानी भरना छोड़ दिया
लड़कियाँ इश्क़ में कितनी पागल होती हैं
फ़ोन बजा और चूल्हा जलता छोड़ दिया
रोज़ इक पत्ता मुझ में आ गिरता है
जब से मैंने जंगल जाना छोड़ दिया
बस कानों पर हाथ रखे थे थोड़ी देर
और फिर उस आवाज़ ने पीछा छोड़ दिए
~ तहज़ीब हाफ़ी
33 तुझसे मगर मोहब्बत भी बहुत है
क़रार पाते हैं आख़िर हम अपनी अपनी जगह
ज़ियादा रह नहीं सकता कोई किसी की जगह
बनानी पड़ती है हर शख़्स को जगह अपनी
मिले अगरचे ब-ज़ाहिर बनी-बनाई जगह
हैं अपनी अपनी जगह मुतमइन जहाँ सब लोग
तसव्वुरात में मेरे है एक ऐसी जगह
गिला भी तुझ से बहुत है मगर मोहब्बत भी
वो बात अपनी जगह है ये बात अपनी जगह
किए हुए है फ़रामोश तू जिसे ‘बासिर’
वही है अस्ल में तेरा मक़ाम तेरी जगह
~बासिर काज़मी
34 अपने ख़्वाबों के जज़ीरों को
मुझ से पहले तुझे जिस शख़्स ने चाहा उस ने
शायद अब भी तेरा ग़म दिल से लगा रक्खा हो
एक बे-नाम सी उम्मीद पे अब भी शायद
अपने ख़्वाबों के जज़ीरों को सजा रक्खा हो
मैं ने माना कि वो बेगाना-ए-पैमान-ए-वफ़ा
खो चुका है जो किसी और की रानाई में
शायद अब लौट के आए न तेरी महफ़िल में
और कोई दुख न रुलाये तुझे तन्हाई में
मैं ने माना कि शब ओ रोज़ के हंगामों में
वक़्त हर ग़म को भुला देता है रफ़्ता रफ़्ता
चाहे उम्मीद की शमएँ हों कि यादों के चराग़
मुस्तक़िल बोद बुझा देता है रफ़्ता रफ़्ता
फिर भी माज़ी का ख़याल आता है गाहे-गाहे
मुद्दतें दर्द की लौ कम तो नहीं कर सकतीं
ज़ख़्म भर जाएँ मगर दाग़ तो रह जाता है
दूरियों से कभी यादें तो नहीं मर सकतीं
ये भी मुमकिन है कि इक दिन वो पशीमाँ हो कर
तेरे पास आए ज़माने से किनारा कर ले
तू कि मासूम भी है ज़ूद-फ़रामोश भी है
उस की पैमाँ-शिकनी को भी गवारा कर ले
और मैं जिस ने तुझे अपना मसीहा समझा
एक ज़ख़्म और भी पहले की तरह सह जाऊँ
जिस पे पहले भी कई अहद-ए-वफ़ा टूटे हैं
इसी दो-राहे पे चुप-चाप खड़ा रह जाऊँ
~अहमद फ़राज़
35. उम्र गुज़री है तेरे शहर में आते जाते
हाथ ख़ाली हैं तेरे शहर से जाते जाते,
जान होती तो मेरी जान लुटाते जाते!!
अब तो हर हाथ का पत्थर हमें पहचानता है,
उम्र गुज़री है तेरे शहर में आते जाते!!
अब के मायूस हुआ यारों को रुख़्सत कर के,
जा रहे थे तो कोई ज़ख़्म लगाते जाते!!
रेंगने की भी इजाज़त नहीं हम को वर्ना,
हम जिधर जाते नए फूल खिलाते जाते!!
मैं तो जलते हुए सहराओं का इक पत्थर था,
तुम तो दरिया थे मेरी प्यास बुझाते जाते!!
मुझ को रोने का सलीक़ा भी नहीं है शायद,
लोग हँसते हैं मुझे देख के आते जाते!!
हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे,
कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते!!
~राहत इंदौरी
36. उसके दिल का सफर
उसके दिल का सफर,
उसकी आंखों से होकर गुजरता है ,
जिसमे मैं डूब जाना चाहता हूं!
उसके दिल का सफर
उसकी धड़कनों से होकर गुजरता है
जिसकी धुन मैं सुनना चाहता हूं !
उसके दिल का सफर
उसके खूबसूरत बालों से होकर गुजरता है
जिसमें मैं उलझना चाहता हूं ,
जिसमे मै सुलझना चाहता हूं!
उसके दिल का सफर…
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