30+ Ancient Love Poetry ! love poem in Hindi

Love poetry in Hindi

इश्क़ हो जाए तो फिर इश्क़ निभाना होगा

Love poem in Hindi

आपके ज़ख़्म शगुफ़्ता नहीं होने देते

और सितम ये कि हमेशा नहीं होने देते

यूँ तो हर दिन मैं अज़ीज़ उनको ही होता हूँ मगर

ख़ास दिन पे मुझे अपना नहीं होने देते

 

उनपे मरने के लिए ही तो मैं जीता हूँ मगर

मुझको नासेह कभी उनका नहीं होने देते

हँसने वाले बड़े चालाक हुआ करते हैं

ऐसे रोते हैं तमाशा नहीं होने देते

 

अब फ़क़त चेहरे पे नज़रें नहीं रुकती मेरी

कई धोके हैं जो धोका नहीं होने देते

तू कहीं और जो ख़ुश है तो ये एहसान समझ

हम तेरे दोस्त थे वरना नहीं होने देते

 

इश्क़ हो जाए तो फिर इश्क़ निभाना होगा

वो समझते हैं लिहाज़ा नहीं होने देते

हमीं लोगों ने बचा रक्खा है रातों का वजूद

शहर वाले तो अँधेरा नहीं होने देते

                           —- Ashraf Jahangeer



उदासियों में भी चेहरा खिला ही लगे.

 

दुआ करो कि ये पौदा सदा हरा ही लगे,

उदासियों में भी चेहरा खिला खिला ही लगे.!!

वो सादगी न करे कुछ भी तो अदा ही लगे,

वो भोल-पन है कि बेबाकी भी हया ही लगे.!!

 

ये ज़ाफ़रानी पुलओवर उसी का हिस्सा है,

कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे.!!

नहीं है मेरे मुक़द्दर में रौशनी न सही,

ये खिड़की खोलो ज़रा सुब्ह की हवा ही लगे.!!

 

अजीब शख़्स है नाराज़ हो के हँसता है,

मैं चाहता हूँ ख़फ़ा हो तो वो ख़फ़ा ही लगे.!!

हसीं तो और हैं लेकिन कोई कहाँ तुझ सा,

जो दिल जलाए बहुत फिर भी दिलरुबा ही लगे.!!

 

हज़ारों भेस में फिरते हैं राम और रहीम,

कोई ज़रूरी नहीं है भला भला ही लगे.!!

                    ——- बशीर बद्र साहब



तुम्हारा नाम लिखने की इजाज़त

 

समुंदर में उतरता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

तिरी आँखों को पढ़ता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

तुम्हारा नाम लिखने की इजाज़त छिन गई जब से

कोई भी लफ़्ज़ लिखता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

 

तिरी यादों की ख़ुश्बू खिड़कियों में रक़्स करती है

तिरे ग़म में सुलगता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

न जाने हो गया हूँ इस क़दर हस्सास मैं कब से

किसी से बात करता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

 

मैं सारा दिन बहुत मसरूफ़ रहता हूँ मगर जूँही

क़दम चौखट पे रखता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

हर इक मुफ़्लिस के माथे पर अलम की दास्तानें हैं

कोई चेहरा भी पढ़ता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

 

बड़े लोगों के ऊँचे बद-नुमा और सर्द महलों को

ग़रीब आँखों से तकता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

तिरे कूचे से अब मेरा तअ’ल्लुक़ वाजिबी सा है

मगर जब भी गुज़रता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

हज़ारों मौसमों की हुक्मरानी है मिरे दिल पर

‘वसी’ मैं जब भी हँसता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

                ——— वसी शाह



कोई चेहरा भी पढ़ता हूँ तो आँखें

 

तेरी ख़ुश्बू का पता करती है

मुझ पे एहसान हवा करती है

चूम कर फूल को आहिस्ता से

मो’जिज़ा बाद-ए-सबा करती है

 

खोल कर बंद-ए-क़बा गुल के हवा

आज ख़ुश्बू को रिहा करती है

अब्र बरसे तो इनायत उस की

शाख़ तो सिर्फ़ दुआ करती है

 

ज़िंदगी फिर से फ़ज़ा में रौशन

मिशअल-ए-बर्ग-ए-हिना करती है

हम ने देखी है वो उजली साअ’त

रात जब शेर कहा करती है

 

शब की तन्हाई में अब तो अक्सर

गुफ़्तुगू तुझ से रहा करती है

दिल को उस राह पे चलना ही नहीं

जो मुझे तुझ से जुदा करती हैl

 

ज़िंदगी मेरी थी लेकिन अब तो

तेरे कहने में रहा करती है

उस ने देखा ही नहीं वर्ना ये आँख

दिल का अहवाल कहा करती है

 

मुसहफ़-ए-दिल पे अजब रंगों में

एक तस्वीर बना करती है

बे-नियाज़-ए-कफ़-ए-दरिया अंगुश्त

रेत पर नाम लिखा करती है

 

देख तू आन के चेहरा मेरा

इक नज़र भी तिरी क्या करती है

ज़िंदगी भर की ये ताख़ीर अपनी

रंज मिलने का सिवा करती है

 

शाम पड़ते ही किसी शख़्स की याद

कूचा-ए-जाँ में सदा करती है

मसअला जब भी चराग़ों का उठा

फ़ैसला सिर्फ़ हवा करती है

 

मुझ से भी उस का है वैसा ही सुलूक

हाल जो तेरा अना करती है

दुख हुआ करता है कुछ और बयाँ

बात कुछ और हुआ करती है

            ——– परवीन शाकिर

 



Love poetry in urdu


होता रहा मुक़ाबला पानी का और प्यास का

तेरे लिए चले थे हम तेरे लिए ठहर गए

तू ने कहा तो जी उठे तू ने कहा तो मर गए

कट ही गई जुदाई भी कब ये हुआ कि मर गए

तेरे भी दिन गुज़र गए मेरे भी दिन गुज़र गए

 

तू भी कुछ और और है हम भी कुछ और और हैं

जाने वो तू किधर गया जाने वो हम किधर गए

राहों में ही मिले थे हम राहें नसीब बन गईं

वो भी न अपने घर गया हम भी न अपने घर गए

 

वक़्त तिरी जुदाई का इतना तवील हो गया

दिल में तिरे विसाल के जितने थे ज़ख़्म भर गए

होता रहा मुक़ाबला पानी का और प्यास का

सहरा उमड उमड पड़े दरिया बिफर बिफर गए

 

वो भी ग़ुबार-ए-ख़्वाब था हम भी ग़ुबार-ए-ख़्वाब थे

वो भी कहीं बिखर गया हम भी कहीं बिखर गए

कोई कनार-ए-आबजू बैठा हुआ है सर-निगूँ

कश्ती किधर चली गई जाने किधर भँवर गए

 

आज भी इंतिज़ार का वक़्त हुनूत हो गया

ऐसा लगा कि हश्र तक सारे ही पल ठहर गए

                                     —–अदीम हाशमी.



किसी भी हुस्न का जादू नहीं चला

रखता था ख़ूब इश्क़ का पहले ख़याल मैं

सो यूँ हुआ कि ख़ूब हुआ इस्तेमाल मैं

पागल हैं इश्क़ में सभी अव्वल मगर है कौन

सबको यही तपाक से आया ख़याल ”मैं”

 

उस उम्र में जो ग़लतियाँ मैं कर नहीं सका

करता हूँ आजतक भी उसी का मलाल मैं

तब से किसी भी हुस्न का जादू नहीं चला

जब से समझ गया हूँ मुहब्बत की चाल मैं

 

इससे बुरा तो क्या ही हो दोज़ख की ज़िंदगी

तेरे बिना जो काट चुका डेढ़ साल मैं

रह जाती हैं अधूरी ही मुझ से कई ग़ज़ल

करता नहीं हूँ ग़म की भी अब देखभाल मैं

 

यूँ मय-कदे से ख़ास मेरा राब्ता नहीं

बस पूछने को जाता हूँ साक़ी का हाल मैं

शायद ही क़ब्ल-ए-मौत मिले इश्क़ से नजात

शायद ही काट पाऊं इन आँखों का जाल मैं

 

जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधे

तब मैं ने अपने दिल में लाखों ख़याल बाँधे

दो दिन में हम तो रीझे ऐ वाए हाल उन का

गुज़रे हैं जिन के दिल को याँ माह-ओ-साल बाँधे

 

तार-ए-निगह में उस के क्यूँकर फँसे न ये दिल

आँखों ने जिस के लाखों वहशी ग़ज़ाल बाँधे

जो कुछ है रंग उस का सो है नज़र में अपनी

गो जामा ज़र्द पहने या चीरा लाल बाँधे

तेरे ही सामने कुछ बहके है मेरा नाला

 

वर्ना निशाने हम ने मारे हैं बाल बाँधे

बोसे की तो है ख़्वाहिश पर कहिए क्यूँकि उस से

जिस का मिज़ाज लब पर हर्फ़-ए-सवाल बाँधे

मारोगे किस को जी से किस पर कमर कसी है

 

फिरते हो क्यूँ प्यारे तलवार ढाल बाँधे

दो-चार शेर आगे उस के पढ़े तो बोला

मज़मूँ ये तू ने अपने क्या हस्ब-ए-हाल बाँधे

‘सौदा’ जो उन ने बाँधा ज़ुल्फ़ों में दिल सज़ा है

शेरों में उस के तू ने क्यूँ ख़त्त-ओ-ख़ाल बाँधे

                         ——- मोहम्मद रफ़ी सौदा



हर साँस ये कहती है हम हैं तो ख़ुदा भी है

हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है

डाका तो नहीं डाला चोरी तो नहीं की है

ना-तजरबा-कारी से वाइ’ज़ की ये हैं बातें

इस रंग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है

 

उस मय से नहीं मतलब दिल जिस से है बेगाना

मक़्सूद है उस मय से दिल ही में जो खिंचती है

ऐ शौक़ वही मय पी ऐ होश ज़रा सो जा

मेहमान-ए-नज़र इस दम इक बर्क़-ए-तजल्ली

 

वाँ दिल में कि सदमे दो याँ जी में कि सब सह लो

उन का भी अजब दिल है मेरा भी अजब जी है

हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से

हर साँस ये कहती है हम हैं तो ख़ुदा भी है

 

सूरज में लगे धब्बा फ़ितरत के करिश्मे हैं

बुत हम को कहें काफ़िर अल्लाह की मर्ज़ी है

ता’लीम का शोर ऐसा तहज़ीब का ग़ुल इतना

बरकत जो नहीं होती निय्यत की ख़राबी है

 

सच कहते हैं शैख़ ‘अकबर’ है ताअत-ए-हक़ लाज़िम

हाँ तर्क-ए-मय-ओ-शाहिद ये उन की बुज़ुर्गी है

                              —– अकबर इलाहाबादी



मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई

न जी भर के देखा न कुछ बात की

बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की

उजालों की परियाँ नहाने लगीं

नदी गुनगुनाई ख़यालात की

 

मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई

ज़बाँ सब समझते हैं जज़्बात की

मुक़द्दर मिरी चश्म-ए-पुर-आब का

बरसती हुई रात बरसात की

 

कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं

कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की

                            ——-बशीर बद्र



जहाँ पे डूबेगा सूरज वहीं से निकलेगा.!!

 

न हम-सफ़र न किसी हम-नशीं से निकलेगा,

हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा.!!

मैं जानता था कि ज़हरीला साँप बन-बन कर,

तिरा ख़ुलूस मिरी आस्तीं से निकलेगा.!!

 

इसी गली में वो भूका फ़क़ीर रहता था,

तलाश कीजे ख़ज़ाना यहीं से निकलेगा.!!

बुज़ुर्ग कहते थे इक वक़्त आएगा जिस दिन,

जहाँ पे डूबेगा सूरज वहीं से निकलेगा.!!

 

गुज़िश्ता साल के ज़ख़्मो हरे-भरे रहना,

जुलूस अब के बरस भी यहीं से निकलेगा.!!

                        ~राहत इंदौरी साहब



पत्थर मुझे कहता है मिरा

आँखों में रहा दिल में उतरकर नहीं देखा

कश्ती के मुसाफ़िर ने समुंदर नहीं देखा

बे-वक़्त अगर जाऊँगा सब चौंक पड़ेंगे

इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा

 

जिस दिन से चला हूँ मिरी मंज़िल पे नज़र है

आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा

ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं

तुमने मिरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा

 

यारों की मोहब्बत का यक़ीं कर लिया मैंने

फूलों में छुपाया हुआ ख़ंजर नहीं देखा

महबूब का घर हो कि बुज़ुर्गों की ज़मीनें

जो छोड़ दिया फिर उसे मुड़कर नहीं देखा

 

ख़त ऐसा लिखा है कि नगीने से जड़े हैं

वो हाथ कि जिसने कोई ज़ेवर नहीं देखा

पत्थर मुझे कहता है मिरा चाहने वाला

मैं मोम हूँ उसने मुझे छूकर नहीं देखा

                ——- Bashir Badr



महसूस की है तेरी ज़रूरत कभी-कभी

 

होती है तेरे नाम से वहशत कभी-कभी

बरहम हुई है यूँ भी तबीअत कभी-कभी

ऐ दिल किसे नसीब ये तौफ़ीक़-ए-इज़्तिराब

मिलती है ज़िंदगी में ये राहत कभी-कभी

 

तेरे करम से ऐ अलम-ए-हुस्न-आफ़रीं

दिल बन गया है दोस्त की ख़ल्वत कभी-कभी

जोश-ए-जुनूँ में दर्द की तुग़्यानियों के साथ

अश्कों में ढल गई तिरी सूरत कभी-कभी

 

तेरे क़रीब रहके भी दिल मुतमइन न था

गुज़री है मुझपे ये भी क़यामत कभी-कभी

कुछ अपना होश था न तुम्हारा ख़याल था

यूँ भी गुज़र गई शब-ए-फ़ुर्क़त कभी-कभी

 

ऐ दोस्त हमने तर्क-ए-मोहब्बत के बावजूद

महसूस की है तेरी ज़रूरत कभी-कभी

                                    —— Nasir Kazmi



Love poetry in English


प्यार तो पहले भी उस से था मग

अश्क ज़ाएअ हो रहे थे देख कर रोता न था

जिस जगह बनता था रोना मैं उधर रोता न था

सिर्फ़ तेरी चुप ने मेरे गाल गीले कर दिए

मैं तो वो हूँ जो किसी की मौत पर रोता न था

 

मुझ पे कितने सानहे गुज़रे पर इन आँखों को क्या

मेरा दुख ये है कि मेरा हम-सफ़र रोता न था

मैं ने उस के वस्ल में भी हिज्र काटा है कहीं

वो मिरे काँधे पे रख लेता था सर रोता न था

 

प्यार तो पहले भी उस से था मगर इतना नहीं

तब मैं उस को छू तो लेता था मगर रोता न था

गिर्या-ओ-ज़ारी को भी इक ख़ास मौसम चाहिए

मेरी आँखें देख लो मैं वक़्त पर रोता न था

                         —–तहज़ीब हाफ़ी



 

थोड़ा प्रेम कमाने के चक्कर में

 

“हरदम मुश्किलों की निगरानी में रहता हूँ ll

 मैं मुश्किलों के साथ आसानी से रहता हूँ ll

 यह अलग बात है कि मैं मुस्कुराते रहता हूँ,

 यह अलग बात है कि परेशानी में रहता हूँ ll

 

 मेरी याद आये तो बस रो दिया करो,

 मैं तुम्हारी आंखों के पानी में रहता हूँ ll

 मुश्किलों को दुनिया परेशानी समझती है फिर भी,

 मुश्किलों को सफलताओं की निशानी मैं कहता हूँ ll

 

 थोड़ा प्रेम कमाने के चक्कर में,

 सच बोलकर हानि मैं सहता हूँ ll”

जहां तक हो सका हमने तुम्हें परदा करायाii है,

मगर ऐ आंसुओं! तुमने बहुत रुसवा कराया है.!!

 

चमक यूं ही नहीं आती है ख़ुद्दारी के चेहरे पर,

अना को हमने दो दो वक़्त का फ़ाक़ा कराया है.!!

बड़ी मुद्दत पे खाई हैं ख़ुशी से गालियाँ हमने,

बड़ी मुद्दत पे उसने आज मुंह मीठा कराया है.!!

 

बिछड़ना उसकी ख़्वाहिश थी न मेरी आरज़ू लेकिन,

जरा सी ज़िद ने इस आंगन का बंटवारा कराया है.!!

कहीं परदेस की रंगीनियों में खो नहीं जाना,

किसी ने घर से चलते वक़्त ये वादा कराया है.!!

                                          ~मुनव्वर राना साहब



तू समंदर है तो होगा मेरे किस काम का

 

चांद एक टूटा हुआ टुकड़ा मेरे जाम का है

ये मेरा क़ौल नहीं हज़रत ए ख़य्याम का है

हमसे पूछो कि ग़ज़ल मांगती है कितना लहू

सब समझते हैं ये धंधा बड़े आराम का है

अब तेरी बारी है आईने बचा ले अपने

 

मेरे हाथों में जो पत्थर है तेरे नाम का है

प्यास अगर मेरी बुझा दे तो मैं जानूं वरना

तू समंदर है तो होगा मेरे किस काम का है

                                       ——  राहत इंदौरी



आग़ाज़-ए-आशिक़ी का मज़ा

 

इक पल में इक सदी का मज़ा हम से पूछिए,

दो दिन की ज़िंदगी का मज़ा हम से पूछिए.!!

भूले हैं रफ़्ता रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम,

क़िस्तों में ख़ुद-कुशी का मज़ा हम से पूछिए.!!

 

आग़ाज़-ए-आशिक़ी का मज़ा आप जानिए,

अंजाम-ए-आशिक़ी का मज़ा हम से पूछिए.!!

जलते दियों में जलते घरों जैसी ज़ौ कहाँ,

सरकार रौशनी का मज़ा हम से पूछिए.!!

 

वो जान ही गए कि हमें उन से प्यार है,

आँखों की मुख़बिरी का मज़ा हम से पूछिए.!!

हँसने का शौक़ हम को भी था आप की तरह,

हँसिए मगर हँसी का मज़ा हम से पूछिए.!!

 

हम तौबा कर के मर गए बे-मौत ऐ ‘ख़ुमार’,

तौहीन-ए-मय-कशी का मज़ा हम से पूछिए.!!

                                    ~ख़ुमार बाराबंकवी



 तेरे याद की तस्वीर में रंग

 

सब मुझे तेरा तलब-गार समझते होंगे,

ये भी मुमकिन है कि हर बार समझते होंगे.!!

 

वो जो भरता था तिरी याद की तस्वीर में रंग,

लोग उस शख़्स को बे-कार समझते होंगे.!!

 

जो मिरा दर्द बढ़ाने के लिए आता था,

शहर वाले उसे ग़म-ख़्वार समझते होंगे.!!

 

इतना ख़ुश हो के कोई मुझ से मिला करता था,

देखने वाले अदाकार समझते होंगे.!!

                                       ~हिमांशी बाबरा



यूँ नहीं है कि फ़क़त मैं ही उसे चाहता हूँ

 

तेरा चुप रहना मेरे ज़ेहन में क्या बैठ गया,

इतनी आवाज़ें तुझे दीं कि गला बैठ गया.!!

यूँ नहीं है कि फ़क़त मैं ही उसे चाहता हूँ,

जो भी उस पेड़ की छाँव में गया बैठ गया.!!

 

इतना मीठा था वो ग़ुस्से भरा लहजा मत पूछ,

उस ने जिस जिस को भी जाने का कहा बैठ गया.!!

अपना लड़ना भी मोहब्बत है तुम्हें इल्म नहीं,

चीख़ती तुम रही और मेरा गला बैठ गया.!!

 

उस की मर्ज़ी वो जिसे पास बिठा ले अपने,

इस पे क्या लड़ना फलां मेरी जगह बैठ गया.!!

बात दरियाओं की सूरज की न तेरी है यहाँ,

दो क़दम जो भी मेरे साथ चला बैठ गया.!!

 

बज़्म-ए-जानाँ में नशिस्तें नहीं होतीं मख़्सूस,

जो भी इक बार जहाँ बैठ गया बैठ गया.!!

                                          ~तहज़ीब



आइना ये तो बताता है मैं क्या हूँ

 

आग है पानी है मिट्टी है हवा है मुझमें

और फिर मानना पड़ता है ख़ुदा है मुझमें

अब तो ले दे के वही शख़्स बचा है मुझमें

मुझको मुझसे जो जुदा करके छुपा है मुझमें

 

जितने मौसम हैं सभी जैसे कहीं मिल जाएँ

इन दिनों कैसे बताऊँ जो फ़ज़ा है मुझमें

आइना ये तो बताता है मैं क्या हूँ लेकिन

आइना इसपे है ख़ामोश कि क्या है मुझमें

 

अब तो बस जान ही देने की है बारी ऐ ‘नूर’

मैं कहाँ तक करूँ साबित कि वफ़ा है मुझमें

                   ——- Krishna Bihari Noor



दिल की बस्ती में उजाला नहीं

 

दिल की बस्ती में उजाला नहीं होने वाला,

मेरी रातों का ख़सारा नहीं होने वाला.!!

मैं ने उल्फ़त में मुनाफ़े’ को नहीं सोचा है,

मेरा नुक़्सान ज़ियादा नहीं होने वाला.!!

 

उस से कहना कि मिरा साथ निभाए आ कर,

मेरा यादों से गुज़ारा नहीं होने वाला.!!

वो हमारा है हमारा है हमारा है फ़क़त,

बावजूद इस के हमारा नहीं होने वाला.!!

 

आज उट्ठा है मदारी का जनाज़ा लोगो,

कल से बस्ती में तमाशा नहीं होने वाला.!!

                              —~हिमांशी बाबरा



Heart Touching Love poetry in urdu

 

कहाँ चराग़ जलाएँ

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता

कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता

 

तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो

जहाँ उमीद हो इसकी वहाँ नहीं मिलता

 

कहाँ चराग़ जलाएँ कहाँ गुलाब रखें

छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता

 

ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं

ज़बाँ मिली है मगर हम-ज़बाँ नहीं मिलता

 

चराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है

ख़ुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता

                                ——- Nida Fazli 



ये जवानी फिर कहाँ

 

चल साथ कि हसरत दिल-ए-मरहूम से निकले

आशिक़ का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले

उम्र सारी तो कटी इश्क़-ए-बुताँ में ‘मोमिन’

आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे

 

ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने

लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई

दिल के फफूले जल उठे सीने के दाग़ से

इस घर को आग लग गई घर के चराग़ से

 

सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ

ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ

मकतब-ए-इश्क़ का दस्तूर निराला देखा

उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक़ याद हुआ

 

जहां तक हो सका हमने तुम्हें परदा कराया है,

मगर ऐ आंसुओं! तुमने बहुत रुसवा कराया है.!!

चमक यूं ही नहीं आती है ख़ुद्दारी के चेहरे पर,

अना को हमने दो दो वक़्त का फ़ाक़ा कराया है.!!

 

बड़ी मुद्दत पे खाई हैं ख़ुशी से गालियाँ हमने,

बड़ी मुद्दत पे उसने आज मुंह मीठा कराया है.!!

बिछड़ना उसकी ख़्वाहिश थी न मेरी आरज़ू लेकिन,

जरा सी ज़िद ने इस आंगन का बंटवारा कराया है.!!

 

कहीं परदेस की रंगीनियों में खो नहीं जाना,

किसी ने घर से चलते वक़्त ये वादा कराया है.!!

                             ~मुनव्वर राना साहब



मैं जब तक घर न लौटूँ मेरी माँ सजदे में

 

बुलन्दी देर तक किस शख़्स के हिस्से में रहती है,

बहुत ऊँची इमारत हर घड़ी ख़तरे में रहती है.!!

बहुत जी चाहता है क़ैद-ए-जाँ से हम निकल जाएँ,

तुम्हारी याद भी लेकिन इसी मलबे में रहती है.!!

 

यह ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता,

मैं जब तक घर न लौटूँ मेरी माँ सजदे में रहती है.!!

अमीरी रेशम-ओ-कमख़्वाब में नंगी नज़र आई,

ग़रीबी शान से इक टाट के पर्दे में रहती है.!!

 

मैं इन्साँ हूँ बहक जाना मेरी फ़ितरत में शामिल है,

हवा भी उसको छू कर देर तक नशे में रहती है.!!

मुहब्बत में परखने जाँचने से फ़ायदा क्या है,

कमी थोड़ी-बहुत हर एक के शजरे में रहती है.!!

 

ये अपने आप को तक़्सीम कर लेता है सूबों में,

ख़राबी बस यही हर मुल्क के नक़्शे में रहती है.!!

                    ~जनाब मुनव्वर राना साहब 



हम ने ही ऐतबार दोबारा नहीं किया

 

कब मौसम-ए-बहार पुकारा नहीं किया,

हम ने तिरे बग़ैर गवारा नहीं किया.!!

दुनिया तो हम से हाथ मिलाने को आई थी,

हम ने ही ऐतबार दोबारा नहीं किया.!!

 

मिल जाए ख़ाक में न कहीं इस ख़याल से,

आँखों ने कोई इश्क़ सितारा नहीं किया.!!

इक उम्र के अज़ाब का हासिल वहीं बहिश्त,

दो चार दिन जहाँ पे गुज़ारा नहीं किया.!!

 

ऐ आसमाँ किस लिए इस दर्जा बरहमी,

हम ने तो तिरी सम्त इशारा नहीं किया.!!

अब हँस के तेरे नाज़ उठाएँ तो किस लिए,

तू ने भी तो लिहाज़ हमारा नहीं किया.!!

                             ~अंबरीन हसीब अंबर 



लपक के छीन ले हक़ अपना

 

हमारे शहर-ए-अदब में चली हवा क्या है,

ये कैसा दौर है यारब हमें हुआ क्या है.!!

उसी ने आग लगाई है सारी बस्ती में,

वही ये पूछ रहा है कि माजरा क्या है.!!

 

ये तेरा ज़र्फ़ कि तू फिर भी बद-गुमाँ न हुआ,

सिवाए दर्द के मैं ने तुझे दिया क्या है.!!

लपक के छीन ले हक़ अपना कम-सवादों से,

बढ़ा के हाथ उठा जाम देखता क्या है.!!

 

भुला दिया है जो तुम ने तो कोई बात नहीं,

मगर मैं जानता आख़िर मिरी ख़ता क्या है.!!

अजीब शख़्स है किरदार माँगता है मिरा,

सिवाए इस के मिरे पास अब बचा क्या है.!!

 

कुरेद कर मेरे ज़ख़्मों को यूँ सवाल न कर,

तुझे ख़बर है तो फिर मुझ से पूछता क्या है.!!

मता-ए-ग़म को बचा रख छुपा के सीने में,

तू इस ख़ज़ाने को औरों में बाँटता क्या है.!!

 

हज़ार ने’मतें उस ने तुझे अता की हैं,

अब और ‘चाँद’ तू इस दर से माँगता क्या है.!!

                                   ~महेंद्र प्रताप चाँद



सब दिल से यहां तेरे तरफ़दार नहीं

 

सब जिनके लिए झोलियां फैलाए हुए हैं

वो रंग मेरी आंख के ठुकराए हुए हैं

इक तुम हो कि शोहरत की हवस ही नहीं जाती

इक हम हैं कि हर शोर से उकताए हुए हैं

 

दो चार सवालात में खुलने के नहीं हम

ये उक़दे तेरे हाथ के उलझाए हुए हैं

अब किसके लिए लाए हो ये चांद सितारे

हम ख़्वाब की दुनिया से निकल आए हुए हैं

 

हर बात को बेवजह उदासी पे ना डालो

हम फूल किसी वजह से कुम्हलाए हुए हैं

कुछ भी तेरी दुनिया में नया ही नहीं लगता

लगता है कि पहले भी यहां आए हुए हैं

 

है देखने वालों के लिए और ही दुनिया

जो देख नहीं सकते वो घबराए हुए हैं

सब दिल से यहां तेरे तरफ़दार नहीं हैं

कुछ सिर्फ़ मिरे बुग़्ज़ में भी आए हुए हैं

                           ——- फ़रीहा नक़वी



अजनबी शहर है कुछ दोस्त बनाते रहिए

 

आते-आते मिरा नाम-सा रह गया

उस के होंटों पे कुछ काँपता रह गया

रात मुजरिम थी दामन बचा ले गई

दिन गवाहों की सफ़ में खड़ा रह गया

 

वो मिरे सामने ही गया और मैं

रास्ते की तरह देखता रह गया

झूट वाले कहीं से कहीं बढ़ गए

और मैं था कि सच बोलता रह गया

 

आँधियों के इरादे तो अच्छे न थे

ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया

उस को काँधों पे ले जा रहे हैं ‘वसीम’

और वो जीने का हक़ माँगता रह गया

 

बात कम कीजे ज़ेहानत को छुपाते रहिए

अजनबी शहर है कुछ दोस्त बनाते रहिए

दुश्मनी लाख सही, ख़त्म न कीजे रिश्ता

दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिए



छोड़ देते जो तुझे हम

 

और कुछ दिन यहां रुकने का बहाना मिलता

इस नए शहर में कोई तो पुराना मिलता

साथ रहने की चुकाई है बड़ी क़ीमत भी

छोड़ देते जो तुझे हम तो ज़माना मिलता

 

मैं तो जो कुछ भी था जितना भी था सब मिट्टी था

तुम मगर ढूंढते मुझ में तो ख़ज़ाना मिलता

ले गए हम ही उसे मन्दिर-ओ-मस्जिद की तरफ़

वरना हर राह में उसका ही ठिकाना मिलता

                   —– शकील आज़मी



वो मिले तो ये पूछना है मुझे

 

उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या,

दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या.!!

मेरी हर बात बे-असर ही रही,

नक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या.!!

 

मुझ को तो कोई टोकता भी नहीं,

यही होता है ख़ानदान में क्या.!!

अपनी महरूमियाँ छुपाते हैं,

हम ग़रीबों की आन-बान में क्या.!!

 

ख़ुद को जाना जुदा ज़माने से,

आ गया था मिरे गुमान में क्या.!!

बोलते क्यूँ नहीं मिरे हक़ में,

आबले पड़ गए ज़बान में क्या.!!

 

ख़ामुशी कह रही है कान में क्या,

आ रहा है मिरे गुमान में क्या.!!

दिल कि आते हैं जिस को ध्यान बहुत,

ख़ुद भी आता है अपने ध्यान में क्या.!!

 

वो मिले तो ये पूछना है मुझे,

अब भी हूँ मैं तिरी अमान में क्या.!!

यूँ जो तकता है आसमान को तू,

कोई रहता है आसमान में क्या.!!

 

ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता,

एक ही शख़्स था जहान में क्या.!!

               —-जौन एलिया साहब 



उस की महफ़िल में उन्हीं की रौशनी

 

खुल के मिलने का सलीक़ा आप को आता नहीं

और मेरे पास कोई चोर दरवाज़ा नहीं

वो समझता था उसे पा कर ही मैं रह जाऊँगा

उस को मेरी प्यास की शिद्दत का अंदाज़ा नहीं

 

जा दिखा दुनिया को मुझ को क्या दिखाता है ग़ुरूर

तू समुंदर है तो है मैं तो मगर प्यासा नहीं

कोई भी दस्तक करे आहट हो या आवाज़ दे

मेरे हाथों में मिरा घर तो है दरवाज़ा नहीं

 

अपनों को अपना कहा चाहे किसी दर्जे के हों

और जब ऐसा किया मैं ने तो शरमाया नहीं

उस की महफ़िल में उन्हीं की रौशनी जिन के चराग़

मैं भी कुछ होता तो मेरा भी दिया होता नहीं

 

तुझ से क्या बिछड़ा मिरी सारी हक़ीक़त खुल गई

अब कोई मौसम मिले तो मुझ से शरमाता नहीं

                            —– वसीम बरेलवी



अभी तो धड़केगा दिल

 

ख़मोश लब हैं झुकी हैं पलकें दिलों में उल्फ़त नई नई है

अभी तकल्लुफ़ है गुफ़्तुगू में अभी मोहब्बत नई नई है

अभी न आएगी नींद तुम को अभी न हम को सुकूँ मिलेगा

अभी तो धड़केगा दिल ज़ियादा अभी ये चाहत नई नई है

 

बहार का आज पहला दिन है चलो चमन में टहल के आएँ

फ़ज़ा में ख़ुशबू नई नई है गुलों में रंगत नई नई है

जो ख़ानदानी रईस हैं वो मिज़ाज रखते हैं नर्म अपना

तुम्हारा लहजा बता रहा है तुम्हारी दौलत नई नई है

 

ज़रा सा क़ुदरत ने क्या नवाज़ा कि आ के बैठे हो पहली सफ़ में

अभी से उड़ने लगे हवा में अभी तो शोहरत नई नई है

बमों की बरसात हो रही है पुराने जाँबाज़ सो रहे हैं

ग़ुलाम दुनिया को कर रहा है वो जिस की ताक़त नई नई है

                              ——  शबीना अदीब



दिल देख रहे हैं वो जिगर देख रहे हैं

 

सब लोग जिधर वो हैं उधर देख रहे हैं

हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं

कोई तो निकल आएगा सरबाज़-ए-मोहब्बत

दिल देख रहे हैं वो जिगर देख रहे हैं

 

कुछ देख रहे हैं दिल-ए-बिस्मिल का तड़पना

कुछ ग़ौर से क़ातिल का हुनर देख रहे हैं

पहले तो सुना करते थे आशिक़ की मुसीबत

अब आँख से वो आठ पहर देख रहे हैं

 

ख़त ग़ैर का पढ़ते थे जो टोका तो वो बोले

अख़बार का परचा है ख़बर देख रहे हैं

पढ़ पढ़ के वो दम करते हैं कुछ हाथ पर अपने

हँस हँस के मेरे ज़ख़्म-ए-जिगर देख रहे हैं

 

मैं ‘दाग़’ हूँ मरता हूँ इधर देखिए मुझ को

मुँह फेर के ये आप किधर देख रहे हैं

                          ——  दाग़ देहलवी



उँगलियाँ घायल पड़ी मिलें

 

अब आग के लिबास को ज़्यादा न दाबिए

सुलगी हुई कपास को ज़्यादा न दाबिए

ऐसा न हो कि उँगलियाँ घायल पड़ी मिलें

चटके हुए गिलास को ज़्यादा न दाबिए

 

चुभकर कहीं बना ही न दे घाव पाँव में

पैरों तले की घास को ज़्यादा न दाबिए

मुमकिन है ख़ून आपके दामन पे जा लगे

ज़ख़्मों के आसपास को ज़्यादा न दाबिए

 

पीने लगे न ख़ून भी आँसू के साथ-साथ

यों आदमी की प्यास को ज़्यादा न दाबिए

            — कुंवर बेचैन



लो आज हम ने तोड़ दिया

 

तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम

ठुकरा न दें जहाँ को कहीं बे-दिली से हम

मायूसी-ए-मआल-ए-मोहब्बत न पूछिए

अपनों से पेश आए हैं बेगानगी से हम

लो आज हम ने तोड़ दिया रिश्ता-ए-उमीद

लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम

उभरेंगे एक बार अभी दिल के वलवले

गो दब गए हैं बार-ए-ग़म-ए-ज़िंदगी से हम

गर ज़िंदगी में मिल गए फिर इत्तिफ़ाक़ से

पूछेंगे अपना हाल तिरी बेबसी से हम

 

अल्लाह-रे फ़रेब-ए-मशिय्यत कि आज तक

दुनिया के ज़ुल्म सहते रहे ख़ामुशी से हम

                                  ——  साहिर लुधियानवी



इश्क़ को अपनी शिकायात पे

 

हम को तो गर्दिश-ए-हालात पे रोना आया

रोने वाले तुझे किस बात पे रोना आया

कैसे जीते हैं ये किस तरह जिए जाते हैं

अहल-ए-दिल की बसर-औक़ात पे रोना आया

 

जी नहीं आप से क्या मुझ को शिकायत होगी

हाँ मुझे तल्ख़ी-ए-हालात पे रोना आया

हुस्न-ए-मग़रूर का ये रंग भी देखा आख़िर

आख़िर उन को भी किसी बात पे रोना आया

 

कैसे मर मर के गुज़ारी है तुम्हें क्या मालूम

रात भर तारों भरी रात पे रोना आया

कितने बेताब थे रिम-झिम में पिएँगे लेकिन

आई बरसात तो बरसात पे रोना आया

 

हुस्न ने अपनी जफ़ाओं पे बहाए आँसू

इश्क़ को अपनी शिकायात पे रोना आया

कितने अंजान हैं क्या सादगी से पूछते हैं

कहिए क्या मेरी किसी बात पे रोना आया

 

अव्वल अव्वल तो बस एक आह निकल जाती थी

आख़िर आख़िर तो मुलाक़ात पे रोना आया

‘सैफ़’ ये दिन तो क़यामत की तरह गुज़रा है

जाने क्या बात थी हर बात पे रोना आया

                            ——– सैफ़ुद्दीन सैफ़



तुम आँख मूँद के पी जाओ ज़िंदगी

 

तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे

मैं एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा न लगे

तुम्हारे बस में अगर हो तो भूल जाओ मुझे

तुम्हें भुलाने में शायद मुझे ज़माना लगे

 

जो डूबना है तो इतने सुकून से डूबो

कि आस-पास की लहरों को भी पता न लगे

वो फूल जो मिरे दामन से हो गए मंसूब

ख़ुदा करे उन्हें बाज़ार की हवा न लगे

 

न जाने क्या है किसी की उदास आँखों में

वो मुँह छुपा के भी जाए तो बेवफ़ा न लगे

तू इस तरह से मिरे साथ बेवफ़ाई कर

कि तेरे बा’द मुझे कोई बेवफ़ा न लगे

 

तुम आँख मूँद के पी जाओ ज़िंदगी ‘क़ैसर’

कि एक घूँट में मुमकिन है बद-मज़ा न लगे

                      —— क़ैसर उल जाफ़री



हमें चराग़ नहीं रौशनी कहा जाए

 

समय से पहले भले शाम-ए-ज़िंदगी आए

किसी तरह भी उदासी का घाव भर जाए

हम अब उदास नहीं सर-ब-सर उदासी हैं

हमें चराग़ नहीं रौशनी कहा जाए

 

जो शेर समझे मुझे दाद-वाद देता रहे

गले लगाए जिसे ग़म समझ में आ जाए

गए दिनों में कोई शौक़ था मोहब्बत का

अब इस अज़ाब में ये ज़ेहन कौन उलझाए

 

किसी के हँसने से रौशन हुई थी बाद-ए-सबा

कोई उदास हुआ तो गुलाब मुरझाए

ये एक दुख ही दबा रह गया है आँखों में

वो एक मिसरा जिसे शेर कर नहीं पाए

 

अगर हूँ ग़ुस्से में फिर भी मैं चाहता ये हूँ

मैं सिर्फ़ हिज्र कहूँ और फ़ोन कट जाए

                   ——- बालमोहन पांडेय




लड़कपन में किये वादे की क़ीमत

 

भरोसा मत करो साँसों की डोरी टूट जाती है

छतें महफ़ूज़ रहती हैं हवेली टूट जाती है

मुहब्बत भी अजब शय है वो जब परदेस में रोये

तो फ़ौरन हाथ की एक-आध चूड़ी टूट जाती है

 

कहीं कोई कलाई एक चूड़ी को तरसती है

कहीं कंगन के झटके से कलाई टूट जाती है

लड़कपन में किये वादे की क़ीमत कुछ नहीं होती

अँगूठी हाथ में रहती है मँगनी टूट जाती है

 

किसी दिन प्यास के बारे में उससे पूछिये जिसकी

कुएँ में बाल्टी रहती है रस्सी टूट जाती है

कभी एक गर्म आँसू काट देता है चटानों को

कभी एक मोम के टुकड़े से छैनी टूट जाती है

                                            —— मुनव्वर राना



You may like also:-

80+Life poetry in Hindi 

Very sad poetry in Hindi 

100+ Romantic poetry in Hindi 

50+ Emotional Poetry & Hindi poems 

50+ famous Urdu poetry in Hindi 

Poetry for village In Hindi 

Leave a Comment

Exit mobile version